सोमवार, अप्रैल 27, 2009

यादों की कतरन से........


यादों की कतरनों से ज़िंदगी को जोड़ रहा हूं

मुसाफ़िर हूं यारों हर कदम बढ़ रहा हूं

खट्टी-मीठी यादों के पिटारे को खोलकर

पुराने रंगों के साथ कुछ नए रंग घोल रहा हूं


कैसे अल्फ़ाजों को समेटकर लिखूं ये कहानी

कि हूबहू हक़ीकत की क़िताब है बनानी

खुशी और ग़म की इस इबारत का

हर पहलू लिख रहा हूं


अभी पांव पर लगे कांटों के ज़ख़्म हरे हैं

कि इन पर मरहम की कोशिश कर रहा हूं

लेकिन दिल के ज़ख़्मों की दवा नहीं मिली

इस पर भी कुछ नया लिख रहा हूं


दायरे तोड़ने की आदत सी हो गई है

कि अब इन दायरों को ख़तम कर रहा हूं

समेटने को शायद कुछ भी न बचे आख़ीर में

इसलिए मुठ्ठी खोलकर आजकल सो रहा हूं



मां के दिलासे हरदम देते थे हिम्मत

कि अब उन्हीं दिलासों से हिम्मत बटोर रहा हूं

फ़ुरसत मिलती है जब, थोड़ा ठहरकर

फिर आगे बढ़ने की ताक़त बटोर रहा हूं