शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

कुछ हाइकू....

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सांस थमती सी

फिर ज़िंदगी अंधेरा

तुम कहां हो



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रात की चादर में लिपटी

मेरी तन्हाई

तेरे इंतज़ार में



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तुम्हारी हंसी

फूल की तरह

सबसे सुखद



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घड़ी की टिक-टिक

इंतज़ार

कब आओगे



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एहसास

पुरानी यादों के

आज भी ज़िंदा




रविवार, दिसंबर 06, 2009

तूफां यहां...

तूफां यहां किस कदर
ढूंढते हैं हमारा घर किधर
सोचते हैं इन लहरों को
अब पार कर जाएं
मंज़िलों का ना कोई
रास्ता इधर..........

शनिवार, नवंबर 28, 2009

मेरे आशियां में....

मेरे आशियां में सपनों के कुछ पौधे लगे हैं
कोशिश है इन्हें दरख़्त बना दूं
पल-पल जवां हो रही डालियों के साथ
उम्मीदें भी जवां हो रहीं
नज़र ना लग जाए किसी की इन्हें
सोचता हूं खिड़कियों पे पर्दे लगा लूं

बुधवार, अगस्त 05, 2009

फिर आ गई है राखी...

मेरी यादों में तस्वीर की तरह बसी है हर राखी
बचपन की यादों में बहन से तकरार की राखी
मां के आंचल में छिपकर फिर प्यार की राखी
पापा ने समझाया तो थोड़ी समझदार हुई राखी
हम जितना समझे, समझदार हुई राखी
जिम्मेदारियां समझे तो जिम्मेदार हुई राखी
बहन को फिर वचन दिया वचनदार हुई राखी
वही घर, वही गलियां, फिर सब बुला रहे हैं
जाओ अपने घर, फिर गई है राखी...

शनिवार, मई 23, 2009

एक घर चाहिए....

आसरा है इनको नई सरकार से
हर सरकार से होता है
हो भी क्यों
ज़िंदगी की जद्दोज़हद में
कहीं पीछे छूट गए हैं
मजदूर...हां मजदूर
सपनों के घर बनाने वाले
अपना घर बना पाए

ईट-गारे का बोझ
ढोते-ढोते
बीत गई उम्र
पर अपनी झोपड़ी से
आगे नहीं बढ़ पाए
जिन हाथों ने
गढ़े दूसरों के सपनें
अपने सपनें
पूरे नहीं कर पाए

इनका भी घर हो
इनका सपना है
पर पूरा कैसे हो
फिर उम्मीद
नई सरकार से
कि घर बनाने वालों को
भी घर चाहिए
एक पक्की छत
चार दीवारों के साथ
और दरवाजा
जो रोज़
उम्मीदों के साथ खुले.....

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

यादों की कतरन से........


यादों की कतरनों से ज़िंदगी को जोड़ रहा हूं

मुसाफ़िर हूं यारों हर कदम बढ़ रहा हूं

खट्टी-मीठी यादों के पिटारे को खोलकर

पुराने रंगों के साथ कुछ नए रंग घोल रहा हूं


कैसे अल्फ़ाजों को समेटकर लिखूं ये कहानी

कि हूबहू हक़ीकत की क़िताब है बनानी

खुशी और ग़म की इस इबारत का

हर पहलू लिख रहा हूं


अभी पांव पर लगे कांटों के ज़ख़्म हरे हैं

कि इन पर मरहम की कोशिश कर रहा हूं

लेकिन दिल के ज़ख़्मों की दवा नहीं मिली

इस पर भी कुछ नया लिख रहा हूं


दायरे तोड़ने की आदत सी हो गई है

कि अब इन दायरों को ख़तम कर रहा हूं

समेटने को शायद कुछ भी न बचे आख़ीर में

इसलिए मुठ्ठी खोलकर आजकल सो रहा हूं



मां के दिलासे हरदम देते थे हिम्मत

कि अब उन्हीं दिलासों से हिम्मत बटोर रहा हूं

फ़ुरसत मिलती है जब, थोड़ा ठहरकर

फिर आगे बढ़ने की ताक़त बटोर रहा हूं




गुरुवार, मार्च 19, 2009

उठा लो मशाल

ज़िंदगी के किसी मोड़ पर

न कोई भरम रहे

तमन्नाओं पर जीत के लिए

हौसलें हावी रहें

कि अभी वक्त का तकाजा है

पसीना बहा लो

खूबसूरत कल की

मूरत बना लो

ख्वाबों के संग तुम्हारी जंग में

जीत ज़रूर होगी

वक्त से तुम आगे होगे

पीछे दुनिया होगी

अब देर न करो

जुट जाओ इसी हाल

फौलादी इरादों की

उठा लो मशाल

मुझे पता है....

ज़िंदगी के इस मोड़ पर भी

न ठहर पाउंगा

मुझे पता है

मैं वक्त तो नहीं

पर गुजर जाउंगा

कभी जो मुलाक़ात हो जाए

किसी मोड़ पर

मिल के चंद पल

फिर निकल जाउंगा....

सोमवार, मार्च 02, 2009

तुम ऐसी तो ना थी....

हसरत तुम्हारी ये तो न थी
कि आज तुम क्या हो गई हो
हमसे कुछ अलग
बेपरवाह सी हो गई हो

तमन्नाओं के ढेर थे
मुट्ठियों में क़ैद सपने
न ढेर हैं न तमन्नाएं
तुम कहां खो गई हो

रंगीं फ़िज़ा के नज़ारे
देखते थे जिनकी आंखों से
अब ऐसे नज़ारों से
क्यों ओझल हो गई हो

वफ़ा की मिसाल थी
हर किसी की ज़ुबां पर
अब हर ज़ुबां के लफ़्ज़ से
गायब हो गई हो

मांगते थे मुस्कान
जिनके होठों से
मयस्सर नहीं अब
बस रुला रही हो

हर दर्द की
दवा थी तुम
अब हर दवा पे भारी
दर्द बन गई हो

तबियत परेशां सी
उलझन में जज़्बात
कैसे खेल मुझसे तुम
यूं खेल रही हो

..............to be continued