शनिवार, मई 23, 2009

एक घर चाहिए....

आसरा है इनको नई सरकार से
हर सरकार से होता है
हो भी क्यों
ज़िंदगी की जद्दोज़हद में
कहीं पीछे छूट गए हैं
मजदूर...हां मजदूर
सपनों के घर बनाने वाले
अपना घर बना पाए

ईट-गारे का बोझ
ढोते-ढोते
बीत गई उम्र
पर अपनी झोपड़ी से
आगे नहीं बढ़ पाए
जिन हाथों ने
गढ़े दूसरों के सपनें
अपने सपनें
पूरे नहीं कर पाए

इनका भी घर हो
इनका सपना है
पर पूरा कैसे हो
फिर उम्मीद
नई सरकार से
कि घर बनाने वालों को
भी घर चाहिए
एक पक्की छत
चार दीवारों के साथ
और दरवाजा
जो रोज़
उम्मीदों के साथ खुले.....