कुछ तेरी...कुछ मेरी
गुरुवार, मई 24, 2012
मंगलवार, मई 22, 2012
ना उनका जश्न था, ना मेरा शिकवा...
1.
न उनका जश्न था, ना मेरा शिकवा
ना उनको फिक्र थी, ना मुझे शिकायत
मेरे सीने में जलती आग ने
मेरे ही जख्म कर दिए
2.
अंगारों में जी रहे थे
एक बूंद के सहारे
दरिया था आग का
उम्मीदें थीं किनारे
3.
ख्वाहिशें दबे पांव
घर कर जाती हैं
मेरे आइने में
उम्मीदों की
परछाइयां छोड़ जाती हैं
4.
दफ्न है वो मेरे सीने में
एक याद बनकर
मेरी चाहतों में
मेरी फरियाद बनकर
भूल जाऊं जो कभी
तेरी इनायत को
मेरी सांसें भी रूठ जाएंगी
मेरा दामन छोड़कर
बुधवार, अक्तूबर 26, 2011
दो दिए ज्यादा जलाएं
आओ दो दिए ज्यादा जलाएं
रोशनी के रंग भरे
जो रोशन कर दे जिंदगी
उम्मीदों की बाती संग
जो मिटा दे मन का अंधियारा
हम मनाए पर्व कुछ ऐसे
कि जीवन सबके रोशन हों
मन में उमड़े उमंग के छंद
और मधुर राग हो प्रेम संग
नित बहे राग बनकर
रोशनी का ये संगीत
रगों में बहता रहे
प्रकाश का मधुर गीत
बसा रहे मन में
हम सभी के
जीवन भर
रोशनी का आनंद संगीत
शुक्रवार, मार्च 18, 2011
जीना एक आदत
धरती पुकारती है...
आओ तुम्हें समेट लूं
पर आसमां कहता है...
उड़ चल तू कहीं
कश्मकश जिंदगी की
और बहाने हजार हैं
थोड़ा चलता हूं
थोड़ा उड़ता हूं
पर रहता हूं यहीं
अपने इर्द-गिर्द
हजार सपने लेकर
जीता हूं, हां जीता हूं
सपनों की खातिर
बड़े-छोटे...
हर तरह के सपने
सपनों से तो ही
जिंदगी चल रही है
मेरी जिंदगी, आपकी जिंदगी
ऐसे ही चलती रहती है
क्योंकि...
जीना एक आदत है
और...रुकना पसंद नहीं
शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
एक शहर ऐसा भी.....
इतने हो चुके कि अब बियाबां हो गया
मुकद्दर यहां क्या बिगड़ेगा अब लोगों का
शहर ठूठ सा है, सब खतम हो गया
नसीबों को रोते थे, अब बदनसीब भी नहीं हैं
इस शहर में अब कुछ नहीं रह गया
रास्ते कभी मंज़िलों को जाते थे जो
ना रास्ते रहे, ना मंज़िलो से वास्ता
दुआओं की खातिर मंदिर थे मस्जिद थी
अब दुआ नहीं मांगता कोई, खुदा परेशां हो गया
बुधवार, अगस्त 04, 2010
आप न्यूज चैनल में काम करते हैं...झमाझम हैं कि नहीं...???
रविवार, जनवरी 10, 2010
इंतज़ार रोटी का....
बात गरीबी की नहीं
भूख की है
आज उनकी आंखों में
केवल आंसू हैं....
कभी अनवरत बहते
कभी सूख जाते आंसू
केवल वो नहीं
उनके चूल्ह भी रोते हैं
दो रोटियों के मोहताज
ढेरों चूल्हे
इंतज़ार में हैं
कुछ दानों के
जो भूख की तड़प को
मिटा सकें
और पोछ सकें
उनकी आंखों के आंसू
पर....
कौन सहारा बने
किसी की भरी तिजोरियां !
और कहीं कोई खाली पेट
सबको अपनी फ़िक्र
या किसी के चूल्हे की
अपनी सुखद रातों की
सबको है चिंता...
कौन जुटाए
उनके लिए दाने
ताकि बन सके
इंतज़ार करते
चूल्हों पर रोटी.....
शनिवार, जनवरी 09, 2010
इश्क़ के सौ राज़
और हर राज़ में तेरी बात
वो हर बात वो हर याद
तुम्हारी चाहत के....
पन्ने टटोलते लफ़्ज़
और उन लफ़्ज़ों में एक कहानी
कहानी हमारी-तुम्हारी
तब तुम थे हम थे
और थी वो फ़िज़ा
वो फ़िज़ा जो बस थी...
हमारे तुम्हारे लिए
आज भी आता है
वैसा मौसम...
और दिल करता है
कि उन यादों में खो जाऊं
याद कर लूं उन लम्हों को
जो जिए तुम्हारे साथ
सच...वो सुनहरी यादें
शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009
कुछ हाइकू....
#
सांस थमती सी
फिर ज़िंदगी अंधेरा
तुम कहां हो
#
रात की चादर में लिपटी
मेरी तन्हाई
तेरे इंतज़ार में
#
तुम्हारी हंसी
फूल की तरह
सबसे सुखद
#
घड़ी की टिक-टिक
इंतज़ार
कब आओगे
#
एहसास
पुरानी यादों के
आज भी ज़िंदा
रविवार, दिसंबर 06, 2009
तूफां यहां...
ढूंढते हैं हमारा घर किधर
सोचते हैं इन लहरों को
अब पार कर जाएं
मंज़िलों का ना कोई
रास्ता इधर..........
शनिवार, नवंबर 28, 2009
मेरे आशियां में....
कोशिश है इन्हें दरख़्त बना दूं
पल-पल जवां हो रही डालियों के साथ
उम्मीदें भी जवां हो रहीं
नज़र ना लग जाए किसी की इन्हें
सोचता हूं खिड़कियों पे पर्दे लगा लूं
बुधवार, अगस्त 05, 2009
फिर आ गई है राखी...
बचपन की यादों में बहन से तकरार की राखी
मां के आंचल में छिपकर फिर प्यार की राखी
पापा ने समझाया तो थोड़ी समझदार हुई राखी
हम जितना समझे, समझदार हुई राखी
जिम्मेदारियां समझे तो जिम्मेदार हुई राखी
बहन को फिर वचन दिया वचनदार हुई राखी
वही घर, वही गलियां, फिर सब बुला रहे हैं
आ जाओ अपने घर, फिर आ गई है राखी...
शनिवार, मई 23, 2009
एक घर चाहिए....
हर सरकार से होता है
हो भी क्यों न
ज़िंदगी की जद्दोज़हद में
कहीं पीछे छूट गए हैं
मजदूर...हां मजदूर
सपनों के घर बनाने वाले
अपना घर न बना पाए
ईट-गारे का बोझ
ढोते-ढोते
बीत गई उम्र
पर अपनी झोपड़ी से
आगे नहीं बढ़ पाए
जिन हाथों ने
गढ़े दूसरों के सपनें
अपने सपनें
पूरे नहीं कर पाए
इनका भी घर हो
इनका सपना है
पर पूरा कैसे हो
फिर उम्मीद
नई सरकार से
कि घर बनाने वालों को
भी घर चाहिए
एक पक्की छत
चार दीवारों के साथ
और दरवाजा
जो रोज़
उम्मीदों के साथ खुले.....
सोमवार, अप्रैल 27, 2009
यादों की कतरन से........
यादों की कतरनों से ज़िंदगी को जोड़ रहा हूं
मुसाफ़िर हूं यारों हर कदम बढ़ रहा हूं
खट्टी-मीठी यादों के पिटारे को खोलकर
पुराने रंगों के साथ कुछ नए रंग घोल रहा हूं
कैसे अल्फ़ाजों को समेटकर लिखूं ये कहानी
कि हूबहू हक़ीकत की क़िताब है बनानी
खुशी और ग़म की इस इबारत का
हर पहलू लिख रहा हूं
अभी पांव पर लगे कांटों के ज़ख़्म हरे हैं
कि इन पर मरहम की कोशिश कर रहा हूं
लेकिन दिल के ज़ख़्मों की दवा नहीं मिली
इस पर भी कुछ नया लिख रहा हूं
दायरे तोड़ने की आदत सी हो गई है
कि अब इन दायरों को ख़तम कर रहा हूं
समेटने को शायद कुछ भी न बचे आख़ीर में
इसलिए मुठ्ठी खोलकर आजकल सो रहा हूं
मां के दिलासे हरदम देते थे हिम्मत
कि अब उन्हीं दिलासों से हिम्मत बटोर रहा हूं
फ़ुरसत मिलती है जब, थोड़ा ठहरकर
फिर आगे बढ़ने की ताक़त बटोर रहा हूं
गुरुवार, मार्च 19, 2009
उठा लो मशाल
ज़िंदगी के किसी मोड़ पर
न कोई भरम रहे
तमन्नाओं पर जीत के लिए
हौसलें हावी रहें
कि अभी वक्त का तकाजा है
पसीना बहा लो
खूबसूरत कल की
मूरत बना लो
ख्वाबों के संग तुम्हारी जंग में
जीत ज़रूर होगी
वक्त से तुम आगे होगे
पीछे दुनिया होगी
अब देर न करो
जुट जाओ इसी हाल
फौलादी इरादों की
उठा लो मशाल
मुझे पता है....
ज़िंदगी के इस मोड़ पर भी
न ठहर पाउंगा
मुझे पता है
मैं वक्त तो नहीं
पर गुजर जाउंगा
कभी जो मुलाक़ात हो जाए
किसी मोड़ पर
मिल के चंद पल
फिर निकल जाउंगा....
सोमवार, मार्च 02, 2009
तुम ऐसी तो ना थी....
कि आज तुम क्या हो गई हो
हमसे कुछ अलग
बेपरवाह सी हो गई हो
तमन्नाओं के ढेर थे
मुट्ठियों में क़ैद सपने
न ढेर हैं न तमन्नाएं
तुम कहां खो गई हो
रंगीं फ़िज़ा के नज़ारे
देखते थे जिनकी आंखों से
अब ऐसे नज़ारों से
क्यों ओझल हो गई हो
वफ़ा की मिसाल थी
हर किसी की ज़ुबां पर
अब हर ज़ुबां के लफ़्ज़ से
गायब हो गई हो
मांगते थे मुस्कान
जिनके होठों से
मयस्सर नहीं अब
बस रुला रही हो
हर दर्द की
दवा थी तुम
अब हर दवा पे भारी
दर्द बन गई हो
तबियत परेशां सी
उलझन में जज़्बात
कैसे खेल मुझसे तुम
यूं खेल रही हो
..............to be continued
रविवार, सितंबर 21, 2008
मोड़ का वो पेड़....
कभी रुसवाइयों को कभी जश्ने बहार देखा है
ढलते सूरज को कौन सलाम करे...
हर शाम का ढलता मंजर देखा है
गोरी की आंखों में प्रेमी का प्यार
कभी तकरार तो कभी मनुहार देखा है
कि रिश्तों का खेल ये कैसा...
किसी को बिछड़ते तो किसी का निकाह देखा है
पुजारी का वंदन और घंटों का स्पंदन
मस्जिद में नमाज हर रोज देखा है
बचपन की किलकारी वो कैसे भूल जाये...
किसी को हंसता और किसी को रोता देखा है
नारी के रूप में दुर्गा की शक्ति
कभी अदब तो कभी चीरहरण देखा है
कि दुशासन कभी नहीं मरते...
फिर से मर्यादा को शर्मसार देखा है
चबूतरें पर बैठक और धर्म का उन्माद
क़ौमों को मिलते और बिछुड़ते देखा है
कि ठूंठ आंखें बंद कैसे करे...
कभी अलगाव तो कभी मेला देखा है
छल कपट और मौक़ापरस्ती
कभी प्यार तो कभी प्रहार देखा है
कि काश कभी होश खो देता...
पर चश्मदीद की मानिंद हर गुनाह देखा है
तपती दोपहरी में कभी कोहरे की धुंध में
पतझड़ की उदासी और बसंत की बहार को
कि उम्र गुजर गई उसी मोड़ पर...
खुद में ठहरा हुआ इतिहास देखा है
प्रवीन....
गुरुवार, सितंबर 18, 2008
या मेरा नसीब
कि दामन खुशियों का मोहताज न रहा
इस कदर मेहरबान था खुदा
और नसीब
कि फैसले मेरे हक़ में थे
और सबकी दुआयें भी
दुख था कि बस कुछ अपने छूट गए
लेकिन उससे कहीं अधिक खुशी थी
कि कोई पराया अपना बन गया
मद्धम चरागों ने भी
रोशनी से सराबोर कर दिया
चल पड़ा हूं
एक नए जोश के साथ
कि बस आपका साथ चाहिए
सोमवार, सितंबर 15, 2008
ये मेरा पहला ब्लॉग है। मेरी इच्छा है कि इस ब्लाग के जरिए मैं कुछ ऐसा लिखूं जो आपको पसंद आए। मेरी ये भीइच्छा है कि मैं अपने सभी जानने वालो और वो सभी जो अपनी आवाज़ को दूसरों तक पहुंचाना चाहते हैं, को जोड़नाचाहता हूं।
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आपका प्रवीन