गुरुवार, मई 24, 2012

'मन'मर्जी का पेट्रोल बम, जेब पर साढ़े साती..!!!

देश की जनता एक बार फिर महंगाई के बोझ तले दब गई है। यूपीए-2 सरकार ने महंगाई के कोड़े से आम जनता को फिर लहूलुहान कर दिया है। पेट्रोल के दाम में साढ़े सात रुपए की बढ़ोतरी ने जैसे जनता की जेब पर साढ़े साती लगा दी है। दरअसल इसे सरकार की मजबूरी कहें या फिर महंगाई के बोझ तले दबी आम जनता की रीढ़ की रूठी किस्मत... दोनों ही सूरतों में पेट्रोल बम फूटने से जेब जख्मी है.. दाम बढ़े तो हाहाकार भी मच गया.. जनता और विपक्ष दोनों ने केंद्र पर आरोपों की झड़ी लगा दी.. सहयोगी पार्टियां भी खफा हैं.. लेकिन शायद लाचार भी.. यूपीए-2 की तीसरी सालगिरह पर सरकार ने कई मोर्चों पर खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश की.. भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई की भी बात की.. महंगाई को काबू में करने के वादे किए.. लेकिन हुआ ये कि अगले ही दिन पेट्रोल बम फोड़ दिया... जैसे तीसरी सालगिरह का भारी-भरकम तोहफा खुद जनता से मांग लिया हो.. वो सालगिरह पर डिनर करते हैं.. लेकिन आम जनता की थाली में छेद होते जा रहे हैं.. जेब ये सोचने पर मजबूर हो गई है... कि गाड़ी चलाएं या फिर एक साइकिल ले लें। शहरों में केवल 32 रुपए और गांवों में केवल 26 रुपए गरीबी की सीमा रेखा तय करने वाली सरकार को आम जनता के उन सवालों के जवाब तो देने ही होंगे जिनसे वो कदम-कदम पर जूझ रही है।

मंगलवार, मई 22, 2012

ना उनका जश्न था, ना मेरा शिकवा...

1.

न उनका जश्न था, ना मेरा शिकवा

ना उनको फिक्र थी, ना मुझे शिकायत

मेरे सीने में जलती आग ने

मेरे ही जख्म कर दिए

 

2.

अंगारों में जी रहे थे

एक बूंद के सहारे

दरिया था आग का

उम्मीदें थीं किनारे

 

3.

ख्वाहिशें दबे पांव

घर कर जाती हैं

मेरे आइने में

उम्मीदों की

परछाइयां छोड़ जाती हैं

 

4.

दफ्न है वो मेरे सीने में

एक याद बनकर

मेरी चाहतों में

मेरी फरियाद बनकर

भूल जाऊं जो कभी

तेरी इनायत को

मेरी सांसें भी रूठ जाएंगी

मेरा दामन छोड़कर

बुधवार, अक्तूबर 26, 2011

दो दिए ज्यादा जलाएं

आओ दो दिए ज्यादा जलाएं

रोशनी के रंग भरे

जो रोशन कर दे जिंदगी

उम्मीदों की बाती संग

जो मिटा दे मन का अंधियारा

हम मनाए पर्व कुछ ऐसे

कि जीवन सबके रोशन हों

मन में उमड़े उमंग के छंद

और मधुर राग हो प्रेम संग

नित बहे राग बनकर

रोशनी का ये संगीत

रगों में बहता रहे

प्रकाश का मधुर गीत

बसा रहे मन में

हम सभी के

जीवन भर

रोशनी का आनंद संगीत

शुक्रवार, मार्च 18, 2011

जीना एक आदत

धरती पुकारती है...

आओ तुम्हें समेट लूं

पर आसमां कहता है...

उड़ चल तू कहीं

कश्मकश जिंदगी की

और बहाने हजार हैं

थोड़ा चलता हूं

थोड़ा उड़ता हूं

पर रहता हूं यहीं

अपने इर्द-गिर्द

हजार सपने लेकर

जीता हूं, हां जीता हूं

सपनों की खातिर

बड़े-छोटे...

हर तरह के सपने

सपनों से तो ही

जिंदगी चल रही है

मेरी जिंदगी, आपकी जिंदगी

ऐसे ही चलती रहती है

क्योंकि...

जीना एक आदत है

और...रुकना पसंद नहीं

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

एक शहर ऐसा भी.....

हादसों के शहर में अब नहीं होते हादसे
इतने हो चुके कि अब बियाबां हो गया

मुकद्दर यहां क्या बिगड़ेगा अब लोगों का
शहर ठूठ सा है, सब खतम हो गया

नसीबों को रोते थे, अब बदनसीब भी नहीं हैं
इस शहर में अब कुछ नहीं रह गया

रास्ते कभी मंज़िलों को जाते थे जो
ना रास्ते रहे, ना मंज़िलो से वास्ता

दुआओं की खातिर मंदिर थे मस्जिद थी
अब दुआ नहीं मांगता कोई, खुदा परेशां हो गया

बुधवार, अगस्त 04, 2010

आप न्यूज चैनल में काम करते हैं...झमाझम हैं कि नहीं...???

सही या गलत पर अदभुत, ये विचार नहीं एक खामोश सच है कि बस चिल्लाओ और छा जाओ, भले ही कुछ ना कर रहे हो लेकिन कुछ करते दिखो, ये तरीका है अपने को प्रोजेक्ट करने का....नौकरी का सदा सत्य..बॉस इज़ ऑलवेजराइट! और ऑलवेज राइट बॉस को भी झमाझम लोग ज्यादा पसंद होते हैं...(विदेश में किए गए सर्वे के मुताबिक)....कौन कितना चिल्लाता है....खबर...खबर...खबर...कहते हुए दे मारी ब्रेकिंग, खबर पुरानी भी हो तो क्या...न्यूज में ब्रेकिंग अब बदल चुकी है...जो ब्रेकिंग कर दो वही ताजा हो जाती है....दिखाया हुआ वापस तो ला नहीं सकते....उममम....कोई बात नहीं चलो अगली बारी कुछ बेहतर करेंगे....कुछ ताजा चलाएंगे...वैसे भी न्यूज़ में ऑलवेज़ ब्रेकिंग के जमाने में कौन देखता है कि पेपर में छपी थी....या दो दिन पुरानी है....या फिर नेट में पढ़ी....इंस्टैंट वर्क चाहिए...चाहे दमदार हो....या फुस्स पटाखा....गहरी समझ की जरूरत ही नहीं है आगे जाने के लिए...मतलब आगे जाना है तो फुर्ती जरूरी है...वो भी काम की नहीं..हाव-भाव की..आए या कुछ ना आए...कहने का तात्पर्य है अल्पज्ञानी भी इस नौकरी में आगे बढ़ सकते हैं...'नीम हकीम खतरे जान' जैसा कुछ भी नहीं है यहां..आखिर खबर चलाने से किसी की जान जाती है क्या भला...वैसे भी टीवी में कौन कितना अंदर घुसकर खबर दिखाता है...खबर की कितनी चीरफाड़ करता है...करता भी है तो बेमतलब की खबरों की...चार अक्षर लिखो...दे मारो स्क्रीन पर...फिर फोनो..जरूरी हुआ तो फाइल शॉट लगा लिए...नहीं तो आगे बढ़े...फिर वैसी ही एक और ब्रेकिंग दे मारी...एक-आधी खबरें चलाईं....बुलेटिन खतम...दिन भर पार हो गया...हिसाब-किताब दिया...घर चले...फिर अगले दिन वही..हिट होना है तो कुछ सीखो या ना सीखो...झमाझम बनो...ये काम फुर्ती दिखाने का है...खासकर जब बॉस इर्द-गिर्द हों...वक्त का तकाजा है...टीआरपी के चक्कर में हाल ही ऐसा हो गया है...अक्लमंद कितने भी हो...इस झमाझम काम में जो पीछे रह गया...उसका तो भगवान ही मालिक है...कोई तो समझो भाई...ये तो खबरिया चैनल है...यहां तो ऐसे ही चलता है...बड़े-बड़े पत्रकार कहते हैं...हिट होना है तो समझ का पहाड़ा कितना आता है मतलब नहीं...झमाझम कितने हो मतलब इससे है...झमाझम नहीं है कोई तो सीख लो...नहीं तो आपकी बनाई ब्रेकिंग में हिट होने की सुगंध नहीं आएगी...और ब्रेकिंग में अगर ये सुगंध नहीं आई तो...क्या फिर क्या किया दिनभर...घर जाके सोचो...सोचना जरूर...सोचा कि नहीं.....???????? सोचना तो पड़ेगा.....आखिर नहीं सोचेगे तो आगे कैसे बढ़ोगे....झमाझम नहीं बनना है क्या......?

रविवार, जनवरी 10, 2010

इंतज़ार रोटी का....

बात गरीबी की नहीं

भूख की है

आज उनकी आंखों में

केवल आंसू हैं....

कभी अनवरत बहते

कभी सूख जाते आंसू

केवल वो नहीं

उनके चूल्ह भी रोते हैं

दो रोटियों के मोहताज

ढेरों चूल्हे

इंतज़ार में हैं

कुछ दानों के

जो भूख की तड़प को

मिटा सकें

और पोछ सकें

उनकी आंखों के आंसू

पर....

कौन सहारा बने

किसी की भरी तिजोरियां !

और कहीं कोई खाली पेट

सबको अपनी फ़िक्र

नहीं किसी और की

या
किसी के चूल्हे की

अपनी
सुखद रातों की

सबको
है चिंता...

कौन
जुटाए

उनके
लिए दाने

ताकि
बन सके

इंतज़ार
करते

चूल्हों
पर रोटी.....

शनिवार, जनवरी 09, 2010

इश्क़ के सौ राज़

इश्क़ के सौ राज़
और हर राज़ में तेरी बात
वो हर बात वो हर याद
तुम्हारी चाहत के....
पन्ने टटोलते लफ़्ज़
और उन लफ़्ज़ों में एक कहानी
कहानी हमारी-तुम्हारी
तब तुम थे हम थे
और थी वो फ़िज़ा
वो फ़िज़ा जो बस थी...
हमारे तुम्हारे लिए
आज भी आता है
वैसा मौसम...
और दिल करता है
कि उन यादों में खो जाऊं
याद कर लूं उन लम्हों को
जो जिए तुम्हारे साथ
सच...वो सुनहरी यादें






शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

कुछ हाइकू....

#

सांस थमती सी

फिर ज़िंदगी अंधेरा

तुम कहां हो



#

रात की चादर में लिपटी

मेरी तन्हाई

तेरे इंतज़ार में



#

तुम्हारी हंसी

फूल की तरह

सबसे सुखद



#

घड़ी की टिक-टिक

इंतज़ार

कब आओगे



#

एहसास

पुरानी यादों के

आज भी ज़िंदा




रविवार, दिसंबर 06, 2009

तूफां यहां...

तूफां यहां किस कदर
ढूंढते हैं हमारा घर किधर
सोचते हैं इन लहरों को
अब पार कर जाएं
मंज़िलों का ना कोई
रास्ता इधर..........

शनिवार, नवंबर 28, 2009

मेरे आशियां में....

मेरे आशियां में सपनों के कुछ पौधे लगे हैं
कोशिश है इन्हें दरख़्त बना दूं
पल-पल जवां हो रही डालियों के साथ
उम्मीदें भी जवां हो रहीं
नज़र ना लग जाए किसी की इन्हें
सोचता हूं खिड़कियों पे पर्दे लगा लूं

बुधवार, अगस्त 05, 2009

फिर आ गई है राखी...

मेरी यादों में तस्वीर की तरह बसी है हर राखी
बचपन की यादों में बहन से तकरार की राखी
मां के आंचल में छिपकर फिर प्यार की राखी
पापा ने समझाया तो थोड़ी समझदार हुई राखी
हम जितना समझे, समझदार हुई राखी
जिम्मेदारियां समझे तो जिम्मेदार हुई राखी
बहन को फिर वचन दिया वचनदार हुई राखी
वही घर, वही गलियां, फिर सब बुला रहे हैं
जाओ अपने घर, फिर गई है राखी...

शनिवार, मई 23, 2009

एक घर चाहिए....

आसरा है इनको नई सरकार से
हर सरकार से होता है
हो भी क्यों
ज़िंदगी की जद्दोज़हद में
कहीं पीछे छूट गए हैं
मजदूर...हां मजदूर
सपनों के घर बनाने वाले
अपना घर बना पाए

ईट-गारे का बोझ
ढोते-ढोते
बीत गई उम्र
पर अपनी झोपड़ी से
आगे नहीं बढ़ पाए
जिन हाथों ने
गढ़े दूसरों के सपनें
अपने सपनें
पूरे नहीं कर पाए

इनका भी घर हो
इनका सपना है
पर पूरा कैसे हो
फिर उम्मीद
नई सरकार से
कि घर बनाने वालों को
भी घर चाहिए
एक पक्की छत
चार दीवारों के साथ
और दरवाजा
जो रोज़
उम्मीदों के साथ खुले.....

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

यादों की कतरन से........


यादों की कतरनों से ज़िंदगी को जोड़ रहा हूं

मुसाफ़िर हूं यारों हर कदम बढ़ रहा हूं

खट्टी-मीठी यादों के पिटारे को खोलकर

पुराने रंगों के साथ कुछ नए रंग घोल रहा हूं


कैसे अल्फ़ाजों को समेटकर लिखूं ये कहानी

कि हूबहू हक़ीकत की क़िताब है बनानी

खुशी और ग़म की इस इबारत का

हर पहलू लिख रहा हूं


अभी पांव पर लगे कांटों के ज़ख़्म हरे हैं

कि इन पर मरहम की कोशिश कर रहा हूं

लेकिन दिल के ज़ख़्मों की दवा नहीं मिली

इस पर भी कुछ नया लिख रहा हूं


दायरे तोड़ने की आदत सी हो गई है

कि अब इन दायरों को ख़तम कर रहा हूं

समेटने को शायद कुछ भी न बचे आख़ीर में

इसलिए मुठ्ठी खोलकर आजकल सो रहा हूं



मां के दिलासे हरदम देते थे हिम्मत

कि अब उन्हीं दिलासों से हिम्मत बटोर रहा हूं

फ़ुरसत मिलती है जब, थोड़ा ठहरकर

फिर आगे बढ़ने की ताक़त बटोर रहा हूं




गुरुवार, मार्च 19, 2009

उठा लो मशाल

ज़िंदगी के किसी मोड़ पर

न कोई भरम रहे

तमन्नाओं पर जीत के लिए

हौसलें हावी रहें

कि अभी वक्त का तकाजा है

पसीना बहा लो

खूबसूरत कल की

मूरत बना लो

ख्वाबों के संग तुम्हारी जंग में

जीत ज़रूर होगी

वक्त से तुम आगे होगे

पीछे दुनिया होगी

अब देर न करो

जुट जाओ इसी हाल

फौलादी इरादों की

उठा लो मशाल

मुझे पता है....

ज़िंदगी के इस मोड़ पर भी

न ठहर पाउंगा

मुझे पता है

मैं वक्त तो नहीं

पर गुजर जाउंगा

कभी जो मुलाक़ात हो जाए

किसी मोड़ पर

मिल के चंद पल

फिर निकल जाउंगा....

सोमवार, मार्च 02, 2009

तुम ऐसी तो ना थी....

हसरत तुम्हारी ये तो न थी
कि आज तुम क्या हो गई हो
हमसे कुछ अलग
बेपरवाह सी हो गई हो

तमन्नाओं के ढेर थे
मुट्ठियों में क़ैद सपने
न ढेर हैं न तमन्नाएं
तुम कहां खो गई हो

रंगीं फ़िज़ा के नज़ारे
देखते थे जिनकी आंखों से
अब ऐसे नज़ारों से
क्यों ओझल हो गई हो

वफ़ा की मिसाल थी
हर किसी की ज़ुबां पर
अब हर ज़ुबां के लफ़्ज़ से
गायब हो गई हो

मांगते थे मुस्कान
जिनके होठों से
मयस्सर नहीं अब
बस रुला रही हो

हर दर्द की
दवा थी तुम
अब हर दवा पे भारी
दर्द बन गई हो

तबियत परेशां सी
उलझन में जज़्बात
कैसे खेल मुझसे तुम
यूं खेल रही हो

..............to be continued

रविवार, सितंबर 21, 2008

मोड़ का वो पेड़....

मोड़ के उस पेड़ ने एक दौर देखा है
कभी रुसवाइयों को कभी जश्ने बहार देखा है
ढलते सूरज को कौन सलाम करे...
हर शाम का ढलता मंजर देखा है

गोरी की आंखों में प्रेमी का प्यार
कभी तकरार तो कभी मनुहार देखा है
कि रिश्तों का खेल ये कैसा...
किसी को बिछड़ते तो किसी का निकाह देखा है

पुजारी का वंदन और घंटों का स्पंदन
मस्जिद में नमाज हर रोज देखा है
बचपन की किलकारी वो कैसे भूल जाये...
किसी को हंसता और किसी को रोता देखा है

नारी के रूप में दुर्गा की शक्ति
कभी अदब तो कभी चीरहरण देखा है
कि दुशासन कभी नहीं मरते...
फिर से मर्यादा को शर्मसार देखा है

चबूतरें पर बैठक और धर्म का उन्माद
क़ौमों को मिलते और बिछुड़ते देखा है
कि ठूंठ आंखें बंद कैसे करे...
कभी अलगाव तो कभी मेला देखा है

छल कपट और मौक़ापरस्ती
कभी प्यार तो कभी प्रहार देखा है
कि काश कभी होश खो देता...
पर चश्मदीद की मानिंद हर गुनाह देखा है

तपती दोपहरी में कभी कोहरे की धुंध में
पतझड़ की उदासी और बसंत की बहार को
कि उम्र गुजर गई उसी मोड़ पर...
खुद में ठहरा हुआ इतिहास देखा है

प्रवीन....

गुरुवार, सितंबर 18, 2008

ये हवाओं का रूख ही कुछ फिदा था
या मेरा नसीब
कि दामन खुशियों का मोहताज रहा
इस कदर मेहरबान था खुदा
और नसीब
कि फैसले मेरे हक़ में थे
और सबकी दुआयें भी
दुख था कि बस कुछ अपने छूट गए
लेकिन उससे कहीं अधिक खुशी थी
कि कोई पराया अपना बन गया
मद्धम चरागों ने भी
रोशनी से सराबोर कर दिया
चल पड़ा हूं
एक नए जोश के साथ
कि बस आपका साथ चाहिए

सोमवार, सितंबर 15, 2008

आप सभी को नमस्कार.......

ये मेरा पहला ब्लॉग है। मेरी इच्छा है कि इस ब्लाग के जरिए मैं कुछ ऐसा लिखूं जो आपको पसंद आए। मेरी ये भीइच्छा है कि मैं अपने सभी जानने वालो और वो सभी जो अपनी आवाज़ को दूसरों तक पहुंचाना चाहते हैं, को जोड़नाचाहता हूं।

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आपका प्रवीन